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महाराष्ट्र में किसकी बनेगी सरकार

2 months ago | [YT] | 3

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जय श्री राम

1 year ago | [YT] | 13

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सच्चा समर्पण


एक राजा पहली बार गौतम बुद्ध के दर्शन करने अपने पास का एक अमूल्य स्वर्णाभूषण लेकर आया था।

गौतम बुद्ध उस अमूल्य भेंट को स्वीकार करेंगे, इस बारे में उसे शंका थी।

सो, अपने दूसरे हाथ में वह एक सुंदर गुलाब का फूल भी ले आया था।

उसे लगा भगवान्‌ बुद्ध इसे अस्वीकार . नहीं करेंगे। गौतम बुद्ध से मिलने पर जैसे ही उसने अपने हाथ में रखा रत्नजड़ित आभूषण आगे बढ़ाया तो मुसकराकर बुद्ध ने कहा, “इसे नीचे फेंक दो।'' राजा को बुरा लगा।

फिर भी उसने वह आभूषण फेंककर दूसरे हाथ में पकड़ा हुआ गुलाब का फूल बुद्ध को अर्पण किया, यह सोचकर कि गुलाब में कुछ आध्यात्मिकता, कुछ प्राकृतिक सौंदर्य भी शामिल है।

बुद्ध इसे अस्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन फूल देने के लिए राजा ने जैसे ही अपने हाथ आगे बढ़ाए, बुद्ध ने फिर कहा, “इसे नीचे गिरा दो।”

राजा परेशान हुआ। वह बुद्ध को कुछ देना चाहता था, पर अब उसके पास देने के लिए कुछ भी बचा नहीं था। तभी उसे स्वयं का खयाल आया।

उसने सोचा, वस्तुएँ भेंट करने से बेहतर है कि मैं अपने आपको ही भेंट कर दूँ। खयाल आते ही उसने अपने- आपको बुद्ध को भेंट करना चाहा।

बुद्ध ने फिर कहा, “नीचे गिरा दो। गौतम के जो शिष्य वहाँ मौजूद थे, वे राजा की स्थिति देखकर हँसने लगे।

तभी राजा को बोध हुआ, “मैं अपने-आपको समर्पित करता हूँ।” कहना कितना अहंकारपूर्ण है।

'मैं अपने को समर्पित करता हूँ।' यह कहने में समर्पण नहीं हो सकता, क्योंकि “मैं” तो बना हुआ है।

वह समर्पण कहाँ हुआ।'' इस बोध के साथ राजा स्वयं बुद्ध के पैरों पर गिर पड़ा।

1 year ago | [YT] | 11

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1 year ago | [YT] | 12

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, मानव शरीर वास्तव में एक अविश्वसनीय नमूना है। इस पर विश्वास नहीं है? इन दस तथ्यों पर एक नज़र डालें, आप जो सीखेंगे उससे आश्चर्यचकित रह जाएंगे।

शिशु लगभग 300 हड्डियों के साथ पैदा होते हैं, लेकिन जैसे-जैसे वे बड़े होते हैं इनमें से कुछ हड्डियाँ एक साथ जुड़ जाती हैं। वयस्क होने तक उनके पास केवल 206 हड्डियाँ होती हैं।

आपकी आधी से अधिक हड्डियाँ हाथ, कलाई, पैर और टखनों में स्थित होती हैं।

हर सेकंड, आपका शरीर 25 मिलियन नई कोशिकाओं का उत्पादन करता है। इसका मतलब है कि 15 सेकंड में, आप संयुक्त राज्य अमेरिका में लोगों की तुलना में अधिक कोशिकाओं का उत्पादन कर लेंगे।

मानव शरीर में सबसे बड़ी हड्डी फीमर है, जिसे जांघ की हड्डी भी कहा जाता है। सबसे छोटी हड्डी रकाब हड्डी है, जो आपके कान के पर्दे के अंदर स्थित होती है।

मानव शरीर में 60,000-100,000 मील के बीच रक्त वाहिकाएँ होती हैं। यदि उन्हें बाहर निकाला जाए और एक सिरे से दूसरे सिरे तक बिछाया जाए, तो वे दुनिया भर में तीन से अधिक बार यात्रा करने के लिए पर्याप्त लंबे होंगे।

दांतों को कंकाल तंत्र का हिस्सा माना जाता है, लेकिन उन्हें हड्डियों के रूप में नहीं गिना जाता है।

हमारे शरीर के द्रव्यमान का 2% हिस्सा होने के बावजूद, मस्तिष्क हमारे ऑक्सीजन और रक्त आपूर्ति का 20% उपयोग करता है।

हालाँकि मनुष्य सबसे बड़ा, सबसे तेज़ या सबसे मजबूत जानवर नहीं है, हम किसी चीज़ में सर्वश्रेष्ठ हैं: लंबी दूरी की दौड़। हमारी लंबी टाँगें, सीधी मुद्रा और पसीने के माध्यम से गर्मी दूर करने की क्षमता ये सभी कारक हैं जो हमें अच्छा धावक बनाते हैं। वास्तव में, प्रारंभिक मानव लंबे समय तक अपने शिकार का पीछा करते हुए उसका शिकार करते थे, जब तक कि जानवर वास्तव में थकावट से मर नहीं जाते थे, इस तकनीक को दृढ़ता शिकार के रूप में जाना जाता है।

आपके शरीर का लगभग 60% हिस्सा पानी से बना है।

पाउंड दर पाउंड, आपकी हड्डियाँ स्टील से भी अधिक मजबूत हैं। माचिस की डिब्बी के आकार की हड्डी का एक टुकड़ा 18,000 पाउंड तक वजन संभाल सकता है।

1 year ago | [YT] | 9

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हाथी और रस्सी।

एक दिन एक आदमी हाँथियो के बाड़े से हो के गुजर रहा था। नजदीक पहुंच के उसने देखा की इतने विशाल हाँथियो को ना तो पिंजरे में रखा गया था ना ही इन्हे जंजीरो से बंधा गया था। उन्हें बस एक साधारण रस्सी से एक खूंटे में बंधा गया था।

इस उलझन में की इतने साधारण रस्सी को ये हांथी कभी भी तोड़ के भाग सकते है। पर भाग क्यों नहीं रहे ? ये सवाल उस आदमी ने वहाँ के हांथी पालक से पूछा। हांथी पालक ने जवाब दिया ये हांथी जब बच्चे थे तब भी रस्सी से बंधे होते थे। और बार बार प्रयास करने के बाद भी हाँथियो से रस्सी नहीं टूटती थी।

इस लिए अब बड़े होने के बाद भी ये उन्हें ये विश्वाश हो गए है की ये रस्सी कभी नहीं टूट सकती। इस कारन वे कभी रस्सी तोड़ने की कोशिश नहीं करते है।

कहानी से शीख : अक्सर लोग विश्वास कर लेते है की उनसे ये काम नहीं होगा। पर हमारी छमता हमारे विश्वास से परे है। इसलिए अपनी छमता को पहचान के कार्य करना चाहिए।

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1 year ago | [YT] | 9

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बाहर बारिश हो रही थी और अन्दर क्लास चल रही थी, तभी टीचर ने बच्चों से पूछा कि अगर तुम सभी को 100-100 रुपये दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे? किसी ने कहा कि मैं वीडियो गेम खरीदुंगा। किसी ने कहा मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा। किसी ने कहा कि मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया खरीदुंगी, तो किसी ने कहा मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी। एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था। टीचर ने उससे पुछा कि तुम क्या सोच रहे हो? तुम क्या खरीदोगे? बच्चा बोला कि टीचर जी, मेरी माँ को थोड़ा कम दिखाई देता हैं तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा खरीदूंगा। टीचर ने पूछा, तुम्हारी माँ के लिए चश्मा तो तुम्हारे पापा भी खरीद सकते हैं, तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं खरीदना? बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया। बच्चे ने कहा कि मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है। मेरी माँ लोगों के कपड़े सिलकर मुझे पढ़ाती हैं और कम दिखाई देने की वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ ताकि मैं अच्छे से पढ़ सकूँ, बड़ा आदमी बन सकूँ और माँ को सारे सुख दे सकूँ। टीचर ने कहा, बेटा तेरी सोच ही तेरी कमाई है। ये 100 रूपये मेरे वादे के अनुसार और ये 100 रूपये और उधार दे रहा हूँ। जब कभी कमाओ तो लौटा देना। और मेरी इच्छा है तू इतना बड़ा आदमी बने कि तेरे सर पर हाथ फेरते वक्त मैं धन्य हो जाऊं। 15 वर्ष बाद। बाहर बारिश हो रही है। अंदर क्लास चल रही हैं। अचानक स्कूल के आगे जिला कलेक्टर की बत्ती वालीगाड़ी आकर रूकती है। स्कूल स्टाफ चौकन्ना हो जाता है। स्कूल में सन्नाटा छा जाता है। मगर ये क्या? जिला कलेक्टर एक वृद्ध टीचर के पैरों में गिर जाते है और कहते है " सर मैं दामोदर दास उर्फ़ झंडू। आपके उधार के 100 रूपये लौटाने आया हूँ "पूरा स्कूल स्टॉफ स्तब्ध। वृद्ध टीचर झुके हुए नौजवान कलेक्टर को उठाकर भुजाओं में कस लेता है और रो पड़ता है। हम चाहें तो अपने आत्मविश्वास और मेहनत के बल पर अपना भाग्य खुद लिख सकते है और अगर हमको अपना भाग्य लिखना नहीं आता तो परिस्थितियां हमारा भाग्य लिख देंगी l

1 year ago | [YT] | 18

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गुरुभक्‍त संदीपक !

गोदावरी नदी के तट पर महात्‍मा वेदधर्मजी का आश्रम था । उनके आश्रम में अलग-अलग स्‍थानों से वेद अध्‍ययन करने के लिए विद्यार्थी आते थे । उनके शिष्‍यों में संदीपक नाम का अत्‍यंत बुद्धिमान शिष्‍य था । वह गुरुभक्‍त भी था ।

वेदों का अभ्‍यास पूर्ण होने पर उन्‍होंने अपने सभी शिष्‍यों को बुलाया और कहा कि, ‘‘मेरे प्रिय शिष्‍यों, तुम सभी गुरुभक्‍त हो इसमें कोई संदेह नहीं है । मुझसे जितना हो सका उतना ज्ञान तुम सबको मैंने दिया है । परन्‍तु अब मेरे पूर्व जन्‍म के कर्मों के कारण आगे आनेवाले समय में मुझे कोढ होगा, मैं अंधा हो जाऊंगा, मेरे शरीर में कीडे पड जायेगे, मेरे शरीर से दुर्गंध आने लगेगी । इसलिए अब मैं यह आश्रम छोडकर जानेवाला हूं और अपने इस व्‍याधिकाल को काशी में निवास कर के व्‍यतीत करूंगा । मेरा प्रारब्‍ध समाप्‍त होने तक मैं वहीं रहूंगा । तो आप सभी में से कौन-कौन मेरे साथ आने के लिए तैयार है ?’’

गुरुदेवजी की यह बात सुनकर सारे शिष्‍य स्‍तब्‍ध रह गए । तभी संदीपक आगे आया और उसने कहा कि, ‘‘हे गुरुदेवजी, मैं प्रत्‍येक स्‍थिति में, प्रत्‍येक स्‍थान पर आपके साथ रहकर आपकी सेवा करने के लिए तैयार हूं ।’’

गुरुदेवजी बोले, ‘‘देखो संदीपक, मैं अंधा हो जाऊंगा, मेरी शरीर रोग के कारण कैसा होगा । तुम्‍हें मेरे लिए अत्‍यंत कष्‍ट झेलने पडेंगे । इसलिए सोच-समझकर बताओ ।

संदीपक ने कहा, ‘‘ हे गुरुदेवजी, मैं किसी भी प्रकार का कष्‍ट सहने के लिए मैं तैयार हुं । बस आप केवल मुझे आपके साथ चलने की अनुमति दीजिए ।

दूसरे दिन गुरु वेदधर्मजी संदीपक के साथ काशी जाने के लिए निकल पडे । काशी में कंवलेश्‍वर नाम के स्‍थान पर वे दोनों रहने लगे ।

कुछ ही दिनों में गुरु वेदधर्मजी के पूरे शरीर पर कोढ उभर आया, उसमें पस पडने लगा और कीडे भी पड गए । उनको आंखों से कुछ दिखाई भी नहीं देने लगा अर्थात वह अंधे हो गए । उनका स्‍वभाव चिडचिडा और विचित्र सा हो गया । जिस प्रकार गुरुदेवजी ने काशी आने से पहले बताया था, उसी प्रकार से उनकी स्‍थिति हो गई ।

संदीपक दिनरात बहुत लगन से गुरुदेवजी की सेवा करता । उनको स्नान करवाना, शरीर पर हुए जख्‍मों को साफ करना, उनपर औषधि लगाना, कपडे पहनाना, भोजन करवाना, यह सब वह करता था । तब भी गुरुदेवजी सदैव उसी पर चिडचिड करते रहते थे; परंतु संदीपक मन लगाकर उनकी सेवा करता रहता था । उसके मन में गुरुदेवजी के प्रति कभी कोई अनुचित प्रतिक्रिया नहीं आती थी ।

ये सारी सेवाएं करते-करते संदीपक की सारी वासनाएं अर्थात इच्‍छाएं नष्‍ट हो गई । उसकी बुद्धि में एक अलौकिक ज्ञान का प्रकाश फैल गया । वह कहने लगा, अपने मनानुसार साधना करोगे तो कुछ भी हाथ नहीं लगेगा । गुरुदेवजी की बताई राह पर चलोगे तो जीवन में कहीं नहीं भटकोगे ।

इस प्रकार गुरुदेवजी की सेवा करते करते अनेक वर्ष बीत गए । संदीपक की गुरुसेवा देखकर प्रत्‍यक्ष भगवान शिव उसके सामने प्रकट हो गए । उन्‍होंने कहा, ‘‘संदीपक, लोग काशी विश्‍वनाथ का दर्शन करने के लिए आते हैं; मैं तो स्‍वयं तुम्‍हारे पास बिना बुलाए आ गया हूं । तुम अपने गुरु की सेवा अत्‍यंत श्रद्धा और भाव से करते हो, उन गुरु के हृदय में मैं सोऽहं स्‍वरूप में निवास करता हूं । अर्थात तुम्‍हारे द्वारा की गई प्रत्‍येक सेवा मुझ तक पहुंचती है । मैं तुमसे अत्‍यधिक प्रसन्‍न हूं, तुमको जो चाहिए वह वर तुम मुझसे मांग लो !’’

संदीपक ने नम्रतापूर्वक भगवान शिव से कहा कि, ‘‘हे प्रभु, आपकी प्रसन्‍नता ही मेरे लिए सबकुछ है । परन्‍तु भगवान शिवजी ने कहा कि, ‘‘ तुम्‍हें मुझसे कुछ तो मांगना ही पडेगा !’’

भगवान शिवजी के ऐसे वचन सुनकर संदीपक ने कहा कि, ‘‘हे महादेव, आप मुझपर प्रसन्‍न हो गए हैं, यह मेरा परमभाग्‍य है । परन्‍तु मैं अपने गुरुदेवजी की आज्ञा के बिना किसी से कुछ नहीं मांग सकता ।

भगवान बोले, ‘‘ ठीक है, तुम अपने गुरु से पूछकर आओ ।’’

संदीपक गुरुदेवजी के पास आया और उनसे बोला, ‘‘ हे गुरुदेवजी, आपकी कृपा से भगवान शंकर मुझपर प्रसन्‍न होकर मुझे वर देना चाहते हैं । यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आपका कोढ और अंधत्‍व दूर होने के लिए उनसे वर मांगू ?’’

यह सुनकर गुरुदेवजी को बहुत गुस्‍सा आ गया और वह बोले, ‘‘संदीपक, लगता है कि तुम मेरी सेवा करते-करते ऊब गए हो तथा मेरी सेवा टालना चाहते हो । मेरी सेवा करके थक गए हो इसलिए भीख मांग रहे हो ? शिवजी जो देंगे उससे मेरा प्रारब्‍ध तो नहीं बदलेगा ? चले जाओ, मैंने तो तुम्‍हें पहले ही मना किया था; परंतु तुम ही जिद करके मेरे साथ चले आए, चले जाओ ।
संदीपक दौडते हुए भगवान शिवजी के पास गया और उनसे बोला ‘हे भगवन, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए ।’, यह सुनकर भगवान शिवजी उसपर प्रसन्‍न हो गए, परन्‍तु उससे बोले, तुम अपने गुरु की इतनी सेवा करते हो; परंतु तुम्‍हारे गुरु तुम्‍हें ही इतना डांटते रहते हैं ?’’

अपने गुरुदेव की निंदा संदीपक को अच्‍छी नहीं लगी । वह बोला ‘केवल गुरुकृपा से ही शिष्‍य का भला होता है’ और उस स्‍थान को छोडकर वह गुरुदेव की सेवा करने के लिए चला गया ।

भगवान शिवजी ने यह बात भगवान श्री विष्‍णु को बताते हुए संदीपक की गुरुभक्‍ति का वर्णन किया । वह सुनकर भगवान श्री विष्‍णु ने भी संदीपक की परीक्षा ली और उसे वर मांगने के लिए कहा । संदीपक ने उनके चरण पकडकर कहा, ‘‘हे त्रिभुवन के अधिपति, गुरुकृपा से ही मुझे आपके दर्शन हुए हैं । गुरुचरणों में मेरी श्रद्धा सदैव बनी रहे और मुझसे उनकी अखंड सेवा होती रहे, यही वरदान मुझे दीजिए ।’

श्री विष्‍णु ने प्रसन्‍न होकर उसे आशीर्वाद दिया । जब महात्‍मा वेदधर्मजी को यह बात पता चली तब वह अतिप्रसन्‍न हो गए । उन्‍होंने संदीपक को गले से लगाया और आशीर्वाद देकर कहा, ‘‘वत्‍स, तुम ही मेरे सर्वश्रेष्‍ठ शिष्‍य हो । तुम्‍हें सारी सिद्धियां प्राप्‍त होंगी । ऋद्धि-सिद्धि तुम्‍हारे हृदय में निवास करेंगी । संदीपक ने कहा, ‘‘गुरुवर, आपके चरणों में ही मेरी ऋद्धि-सिद्धि हैं । आप केवल मुझे निरंतर आनंदावस्‍था में रहने का आशीर्वाद दीजिए ।’’

उसी समय महात्‍मा वेदधर्मजी का कोढ नष्‍ट हो गया । उनका शरीर पहले की तरह से कांतिमान हो गया । गुरुदेवने अपने इस प्रिय शिष्‍य के सत्‍व की परीक्षा लेकर उसे ब्रह्मविद्या का विशाल खजाना समर्पित किया ।

बच्‍चो सच्‍चा गुरुभक्‍त कैसा होता है, यह आप के ध्‍यान में आया ना ?

1 year ago | [YT] | 16

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*🫀बांटने का सुख🫀*

पूरे चार महीने बाद वो शहर से कमाकर गाँव लौटा था। अम्मा उसे देखते ही चहकी...

"आ गया मेरा लाल! कितना दुबला हो गया है रे! खाली पैसे बचाने के चक्कर में ढंग से खाता-पीता भी नहीं क्या!"

"बारह घंटे की ड्यूटी है अम्मा, बैठकर थोड़े खाना है! ये लो, तुम्हारी मनपसंद मिठाई!"--कहकर उसने मिठाई का डिब्बा माँ को थमा दी!

"कितने की है?"

"साढ़े तीन सौ की!"

"इस पैसे का फल नहीं खा सकता था! अब तो अंगूर का सीजन भी आ गया है!"--अम्मा ने उलाहना दिया।

पूरा दिन गाँव-घर से मिलने में बीत गया था! रात हुई, एकांत में उसने बैग खोलकर एक पैकेट निकाला और पत्नी की ओर बढ़ा दिया--

"क्या है ये?"

"चॉकलेट का डिब्बा, खास तुम्हारे लिए!"

"केवल मेरे लिए ही क्यों!"

"अरे समझा करो। सबके लिए तो मिठाई लायी ही है!"

"कितने का है?"

"आठ सौ का!"

"हांय!!"

"विदेशी ब्रांड है!"

"तो क्या हुआ!"

"तुम नहीं समझोगी! खाना, तब बताना!"

"पर घर में और लोग भी हैं। अम्मा, बाबूजी, तीन तीन भौजाइयां, भतीजे। सब खा लेते तो क्या हर्ज था!"

"अरे पगली, बस चार पीस ही है इसमें, सबके लिए कहाँ से लाता!"

"तो तोड़कर खा लेते!"

"और तुम!"

"बहुत मानते हैं मुझे?"

"ये भी कोई कहने की चीज है!"

"आह! कितनी भाग्यशाली हूँ मैं जो तुम मुझे मिले!"

उसकी आँखें चमक उठी--"मेरे जैसा पति बहुत भाग्य से मिलता है!"

"सच है! लेकिन पता है, ये सौभाग्य मुझे किसने दिया है?"

"किसने?"

"तुम्हारी अम्मा और बाबूजी ने! उन्होंने ही तुम्हारे जैसा हट्टा-कट्टा, सुंदर और प्यार करने वाला पति मुझे दिया है! सोचो, तुम्हारे जन्म पर खुशी मनाने के लिए मैं नहीं थी, एक अबोध शिशु से जवान बनने तक, पढ़ाने-लिखाने और नौकरी लायक बनाने तक मैं नहीं थी। मैं तुम्हारे जीवन में आऊं, इस लायक भी उन्होंने ही तुम्हें बनाया!"

"तुम आखिर कहना क्या चाहती हो?"

"यही कि ये पैकेट अब सुबह ही खुलेगा! एक माँ है, जो साढ़े तीन सौ की मिठाई पर भी इसलिए गुस्सा होती है कि उसके बेटे ने उन पैसों को अपने ऊपर खर्च नहीं किया! और वो बेटा आठ सौ का चॉकलेट चुपके से अपनी बीवी को दे, ये ठीक लग रहा है तुम्हें!"

वो चुप हो गया! पत्नी ने बोलना जारी रखा...

"अम्मा-बाबूजी और लोग गाँव में रहते हैं! तुम ही एकमात्र शहरी हो। बहुत सारी चीजें ऐसी होंगी, जो उन्हें इस जनम में नसीब तो क्या, उनका नाम भी सुनने को नहीं मिलेगा! भगवान ने तुम्हें ये सौभाग्य दिया है कि तुम उन्हें ऐसी अनसुनी-अनदेखी खुशियां दो! वैसे कल को हमारे भी बेटे होंगे! अगर यही सब वे करेंगे तो.......!"

अचानक उसे झटका लगा। चॉकलेट का डिब्बा वापस बैग में रख वो बिस्तर पर करवट बदल सुबकने लगा!

"क्या हुआ? बुरा लगा सुनकर!"

"..............!"

"मर्दों को रोना शोभा नहीं देता! खुद की खुशियों को पहचानना सीखो! जीवन का असल सुख परिजनों को खुश देखने में है! समझे पिया!"

1 year ago | [YT] | 14