संसद में अब #जयचंद शब्द को बैन कर दिया गया है। अभी तक यह नाम किसी को गद्दार बताने के लिए प्रयोग में लिया जाता था। लेकिन इंटरनेट के दौर में सच्चाई सबके सामने आ चुकी है कि जयचंद गद्दार नहीं अपितु एक वीर देशभक्त था और उसकी राष्ट्रनिष्ठा पर प्रश्न उठाना भी मूर्खता है। सरकार का यह निर्णय उन इतिहासकारों के गाल पर जोर का तमाचा है जिन्होंने इतने वर्षों तक जयचंद को बदनाम किया।
हमारे देश के बेईमान इतिहासकारों ने ऐसा झूठ गढ़ा कि मोहम्मद गोरी को भारत आने का और पृथ्वीराज के साथ तराइन का दूसरा युद्ध करने का न्योता जयचंद ने दिया था इसलिए वह देशद्रोही कहा जाएगा। लेकिन सच्चाई तो यह है कि तराइन के दूसरे युद्ध के पहले भी गोरी कईं बार भारत पर आक्रमण कर चूका था और इतिहास में एक भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि तराइन के युद्ध के लिए जयचंद जिम्मेदार था। जबकि इतिहास खंगालें तो उल्टा यह पता चलता है कि पृथ्वीराज के बाद जयचंद ने ही गोरी के लिए सबसे बड़ी चुनौतियाँ खड़ी की। उन्होंने ही गोरी की सेना से एक भीषण युद्ध किया और वीरगति को भी प्राप्त हो गए।
जयचंद की मृत्यु के बाद मुसलमानों ने कन्नौज को हथिया लिया लेकिन आगे जयचंद के वंशजों ने भी मलेच्छों से संघर्ष जारी रखा और अंततः कन्नौज से उन्हें खदेड़ कर दिल्ली के आसपास सिमित कर दिया। जयचंद के वंश के कारण ही कन्नौज के हिन्दू, इस्लामी सत्ता से मुक्त हो सकें। यही कारण था कि मुसलमान जयचंद और उसके पुरे वंश से असीमित घृणा करने लगे। उनके इतिहासकारों ने जयचंद को बदनाम करने की मंशा से यह झूठ गढ़ा कि पृथ्वीराज की मृत्यु का कारण जयचंद था और वह देशद्रोही था।
आगे वामपंथी एवं इस्लामिस्ट इतिहासकारों ने भी इसी बात को दोहराया। उन्होंने जयचंद जैसे देशभक्तों को गद्दार कहा और जो वास्तव में गद्दार थे उन्हें 'महान' बताया।
सरकार ने भले ही औपचारिकता वश यह निर्णय लिया है लेकिन अब गेंद हिन्दू समाज के पाले में हैं। हिन्दू समाज इन मक्कार इतिहासकारों की धूर्तता को समझें और जयचंद को उनका सम्मान प्रदान करें।
विजयभाई को मोहनजी भागवत के हाथों सम्मान मिलना बहुत ही गर्व का क्षण है। समाज में ऐसे कितने ही व्यक्तित्व हैं जिनकी साधना को अभी तक वह सम्मान नहीं मिला जिसके वें अधिकारी हैं।
आरएसएस द्वारा ऐसे व्यक्तित्वों को खोज-खोज उन्हें सम्मानित करना एक योग्य पहल है। सरसंघचालकजी के पद का एक विशेष महत्त्व है और जब इस पद बैठा व्यक्ति समाज के ऐसे लोगों पर अपना हाथ रखता है तब इसका एक सकारात्मक सन्देश समाज में प्रसारित होता है।
विजयभाई ने अपने जीवन के 25 से अधिक वर्ष वाल्मीकि रामायण के साथ जोड़ दिए। रामायण की समीक्षित आवृत्ति का किसी भी स्वदेशी भाषा में अनुवाद करने वाले वे पहले भारतीय हैं।
मैं यूनिवर्सिटी में था तब पहली बार सर को सुना था। आपके शब्दों, आपके ज्ञान पर रामायण के अनुसंधान का स्पष्ट प्रभाव था। तब मेरे पास कोई विषय, कोई कारण नहीं था कि मैं सर से बात करूँ लेकिन मैंने सर का संपर्क रखा और पिछले वर्ष मैं सर से मिलने भी गया। तबसे लगातार समय-समय पर हमारी बातें होती रहती हैं।
करीब 2-3 घंटा हमने रामायण पर बातें की थी। सर ने बड़े ही आदरभाव से मुझे समय दिया। संवाद के बाद, मैं सोचता ही रहा कि क्यों विजयभाई जैसे व्यक्तित्वों से हमारा समाज परिचित नहीं है!! क्यों ऐसे व्यक्तित्वों को यथार्थ सम्मान नहीं मिलता!!
आज सुबह जब अख़बार में मोहनजी के साथ विजयभाई की फोटो देखी तो बहुत ही संतोष हुआ।
टीवी वाली महाभारत धारावाहिक में कर्ण को जन्म से ही बेचारा और अभागा बताया गया है जिसके साथ हमेशा ही अन्याय होता है। किन्तु असल महाभारत पढ़ने पर ज्ञात होता है कि यह सत्य नहीं है। कर्ण की वृत्ति बाल्यकाल से ही अधर्मी थी। उसके मन में प्रारंभ से ही अर्जुन के प्रति द्वेष था। उसने द्रौपदी को वैश्या कहा। उसने भीष्म, कृपाचार्य, अश्व्थामा को अपशब्द कहे और हमेशा युद्ध के लिए दुर्योधन को उकसाये रखा। वह महारथी भी नही क्योंकि वह अर्जुन से कभी जीत ही नाहीं पाया। प्रस्तुत वीडियो में इसी विषय पर विस्तार से चर्चा गई है। अवश्य देखें - https://youtu.be/RxgrB28Xhv8
अरब आक्रांता जब भारत में पाँव पसारने के लिए लालायित थे, ऐसे समय में #रामानुजाचार्य ने भारत की जनता के भीतर की धार्मिक भावनाओं को प्रबल किया और हर वर्ग के लोगों के बीच ‘मुक्ति और मोक्ष’ के मंत्रों के बारे में सार्वजनिक रूप से बताया।
एक बार जब वे यादवाद्रि यानी आज के #मेलकोट पहुंचे तो लोगों ने उन्हें बताया कि 'इस पर्वत पर कभी यादवाद्रिपति की पूजा होती थी किन्तु विधर्मियों ने यहाँ लगातार आक्रमण किये और यहाँ के मंदिरों एवं विग्रहों को खंडित कर दिया। पूजा बंद करवाने की नीयत से कईं विग्रहों को गुप्त स्थान में रखकर चले गए। साथ ही मूल्यवान विग्रहों को दिल्ली के सुल्तानों के पास भी भेज दिया।'
इस बात को सुनकर रामानुजाचार्य यादवाद्रि से दो माह पदयात्रा कर के दिल्ली पहुंचे और भारतवर्ष के अनेक देवालयों से लुटे हुए विग्रहों में से यादवाद्रिपति के उत्सव-विग्रह को वापस यादवाद्रि ले आये।
भगवान यादवाद्रिपति के उत्सव-विग्रह के लौटने के साथ ही एकबार फिरसे गांव में पूजा आरम्भ हो गई। और गांव के भक्त एवं पतितजन यादवाद्रिपति से पुनः निर्मल एवं आशीर्वादयुक्त हो पाए।
आज रामानुज के धर्मावलम्बी जनसमाज में 'श्री-सम्प्रदाय' के अंतर्गत आते हैं और दक्षिण-भारत में उनका प्रभाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। श्री परम्परा में भगवान श्री विष्णु ही परतत्व हैं और यहाँ श्री शब्द का सम्बन्ध श्रीदेवी अर्थात महालक्ष्मी से है। श्री सम्प्रदाय के अनुयायियों का मानना है कि महालक्ष्मी श्रीदेवी, भगवान् विष्णु और मनुष्य के बीच मध्यस्थ है। वें भक्त, भक्ति, भगवन्त, गुरु इन चारों को जोड़ती है और जीव को शरणागति कराकर तीनों दु:खों से मुक्ति कर देती हैं।
'स्टैच्यू ऑफ इक्वैलिटी' के रूप में रामानुजाचार्य की प्रतिमा का अनावरण प्रत्येक हिन्दू के लिए गर्व का क्षण है।
इंडोनेशिया के बालिनेस हिन्दू प्रत्येक ईसाई-वर्ष के बदलने पर रामायण आधारित उत्सव का आयोजन करते हैं।
इस उत्सव का आयोजन केनका पार्क में होता है जहाँ देश-विदेश के लोग अपने वहाँ की आतिशबाजियों-शराबों-पार्टियों को छोड़कर मात्र रामायण देखने पहुँचते हैं। बाली के हिन्दुओं ने 25 वर्ष का समय लगाकर इस पार्क में 393 फुट ऊँची गरुड़-विष्णु की प्रतिमा को स्थापित किया था।
31 दिसम्बर की रात यह पार्क वानरों की ध्वनि, सीताहरण के दृश्यों एवं राम के वचनों से गूंज उठता है। क्या भारतीय हिन्दुओं से ऐसी कोई भी अपेक्षा की जा सकती है?
एक स्वतंत्र सभ्यता के यही लक्षण हैं कि वे दूसरों के कारणों में भी अपनी संस्कृति की छाप छोड़ते हैं। बाली के हिन्दुओं ने इसका एक उत्कृट दृष्टांत दिया है।
हिन्दू मंदिरों के सम्बन्ध में स्वामी श्रद्धानन्द ने आज से लगभग 100 वर्षों पहले जो विचार रखे थे 'काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर' उसका जिवंत दृष्टान्त है।
1920 के दशक में भारत की जनसँख्या 25 करोड़ के आसपास थी जिसमें मुसलमानों की संख्या 3-4 करोड़ यानि 15% के आसपास थी। बावजूद उनके पास जामा और फतहपुरी जैसी बहुत सी ऐसी मस्जिदें थी जहाँ एक साथ 25 से 30 हजार मुस्लिम श्रोता एक साथ बैठ सकते थे। किन्तु हिन्दुओं के पास केवल एक मात्र लक्ष्मीनारायण धर्मशाला थी जहाँ पर कठिनाई से 800 व्यक्ति ही बैठकर सभा कर सकते थे।
स्वामीजी ने अपनी पुस्तक 'हिन्दू संगठन क्यों और कैसे?' में लिखा था कि "आज के हिन्दू एक दूसरे मिलने को नितांत उदासीन रहते हैं। उसका प्रमुख कारण है कि उनके पास मिलने के लिए तथा सभा आदि करने के आयोजन के लिए कोई सार्वजनिक स्थान नहीं है। जातिगत मंदिरों में इतना भी स्थान नहीं है कि वहाँ 100 या 200 व्यक्ति इकट्ठे बैठ जायें।"
ऐसे में उन्होंने सुझाव दिया था कि "प्रत्येक नगर और शहर में एक हिन्दू-राष्ट्र मंदिर की स्थापना अवश्य की जानी चाहिए जिसमें एक साथ 25 हजार एक साथ समा सकें।"
आज जब हिन्दुओं की संख्या 100 करोड़ से अधिक है ऐसे में यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि ऐसे मंदिरों में कम से कम 1 से 2 लाख हिन्दुओं के इकट्ठे होने की सुविधा हो। और मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो 'काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर' में इस बात का बहुत सावधानी से ध्यान रखा गया है।
स्वामीजी ने मंदिर परिसर में भारतमाता के एक सजीव नक़्शे की बात कही थी ताकि प्रत्येक भारतीय इसके सामने खड़े होकर यह प्रतिज्ञा दोहराये कि वह अपनी मातृभूमि को उसी प्राचीन गौरव के स्थान पर पहुँचाने के लिए प्राणों तक की बाजी लगा देगा, जिस स्थान से उसका पतन हुआ था।
मैंने कल्पना नहीं की थी कि स्वामीजी के इस विचार को कभी उतनी महत्ता मिलेगी किन्तु काशी कॉरिडोर के चित्रों देखते हुए मेरी दॄष्टि भारतमाता की उस प्रतिमा पर ठहर गई जो स्वामीजी के विचारो के साक्षी होने का प्रमाण देती है। यहाँ आदि शंकराचार्य एवं अहिल्याबाई होल्कर के साथ-साथ भारतमाता की प्रतिमा भी स्थापित की गई है।
इन्ही स्वामीजी ने कांग्रेस एवं गाँधी को दलितोद्धार, अस्पृश्यता, महिला सशक्तिकरण, हिन्दू पुनरुथान, बाल-विवाह, धर्मान्तरण, शिक्षा जैसे विषयों पर एक से बढ़कर एक उपचारात्मक उपाय सुझाये थे किन्तु किसी ने उसपर तनिक भी ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा।
उस समय दिल्ली एवं आगरा के चर्मकार समाज की एक मात्र यह माँग थी कि उन्हें उन कुओं से पानी भरने दिया जाये जहाँ से हिन्दू एवं मुसलमान दोनों भरते हैं। स्वामीजी ने इस सम्बन्ध में कांग्रेस के मुस्लिम नेता से सहायता मांगी तो उसने उत्तर दिया कि "यदि हिन्दुओं ने आज्ञा दे भी दी तो जब चर्मकार समाज के लोग कुंओं तक आएँगे तो मुसलमान उन्हें बल-प्रयोग कर के भगा देंगे।"
स्वामीजी उस कांग्रेसी नेता के इस उत्तर से बहुत आहात हुए और उन्होंने 1921 में एक पत्र के माध्यम से गांधी को इस बात से अवगत करवाया किन्तु गाँधी ने भी इसकी कोई सूद नहीं ली।
आज इतने वर्षों बाद जब हम तुलना करते हैं कि गाँधी और नेहरू के नामों की माला जपते हुए कैसे असंख्य स्वामीजी जैसे महापुरुषों की उपेक्षा की गई वहीं भाजपा सरकार जिस प्रकार से इन महापुरुषों का अनुसरण कर रही है यह वास्तव में हिन्दुओं के लिए हर्ष का विषय होना चाहिए।
कल मेरी एक क्लाइंट से बात हो रही थी। वह अमेरिका में रहती है।
उसका नाम पढ़कर मैं सोच रहा था कि वह भारत से ही होगी। कुछ देर तक प्रोजेक्ट पर बातें हुईं। तभी अचानक उसने मुझसे पूछा "क्या आप हिन्दू हैं?"
मैंने कहा "हाँ और आप?" उसने कहा "हाँ मैं भी हिन्दू हूँ और मुझे अन्य हिन्दुओं से मिलकर बहुत प्रसन्नता होती है।"
मैंने पूछा "भारत में आपके रूट्स कहाँ से हैं?" उसने कहा "नहीं, मैं तो भारत से नहीं बल्कि 'गयाना' से हूँ!"
मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ किन्तु अपने भावों को सँभालते हुए मैं कुछ अन्य विषयों पर बातें करने लगा।
आश्चर्य इस बात का था कि अमरीका में रहने वाली एक गयाना की हिन्दू कितने सहज ढंग से स्वयं को हिन्दू बता रही है और उस विषय में सामने वाले व्यक्ति को पूछ भी रही है। उसके लिए यह संकोच का नहीं अपितु पहचान और सम्मान विषय है। किन्तु हम भारतीय हिन्दुओं पर पता नहीं कौनसा मनोवैज्ञानिक दबाव है कि हम कहीं भी स्वयं को हिन्दू नहीं बता पाते हैं!
भारत का हिन्दू स्वयं को गाँधीवादी बता देगा, समाजवादी बता देगा, राष्ट्रवादी, एकात्मवादी, अहिंसावादी, अम्बेडकरवादी और ऐसे तमाम 'वादी' किन्तु जो उसकी मूल पहचान है 'हिन्दू' उसे बताने में कतराता रहेगा। अधिकांशों को तो पता भी नहीं होता है कि उनकी पहचान में 'हिन्दू' भी बताया जा सकता है! जबकि भारत के बहार के इंडोनेशिया, मॉरिशस, फिजी, गयाना, सूरीनाम, जमैका, त्रिनिदाद और टोबैगो के हिन्दु बड़े ही सहज तरीके से स्वयं की पहचान हिन्दू बताते हैं और अपनी परम्पराओं पर गर्व भी करते हैं।
क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं कि कोई भारतीय हिन्दू इस तरह की बिज़नेस टॉक में सामने वाले विदेशी से यह पूछ ले कि "आप हिन्दू हैं या नहीं?"
विदेशी के सामने तो ठीक किन्तु भारत में ही हम अपने विद्यालय या ऑफिस में भी कभी स्वयं की पहचान हिन्दू नहीं बता पाते हैं।
आज भारत के किसी भी मठ में चले जाइये आपको अच्छी-खासी संख्या में विदेशियों का जमावड़ा दिखेगा! क्या वे सड़कें और बिल्डिंगे देखने भारत में आये हैं? नहीं! वे यहाँ केवल इसलिए आये क्योंकि यहाँ की पहचान हिन्दू है और वे इसे समझना और जानना चाहते हैं।
तो यदि हम हमारी इस पहचान को भी भुला देंगे तो हमारे पास और कुछ बचेगा ही क्या? इसलिए आवश्यक है कि सबसे ऊपर हम हमारी हिन्दू पहचान को ही रखें।
नोट: फोटो मात्र अभिव्यक्ति के लिए है। यह महिला गयाना की हिन्दू धार्मिक सभा की अध्यक्ष है।
क्या इस दीपावली हम 'मांड्यम अय्यंगारों' की भावनाओं के साथ स्वयं को जोड़ सकते हैं?
"टीपू सुल्तान" ने दीपावली के ही दिन कर्णाटक के 800 से अधिक ब्राम्हणों की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी थी क्योंकि उन्होंने इस्लाम कबूलने से इंकार कर दिया था।
क्या तो बच्चे, क्या तो बूढ़े, क्या तो युवा और क्या ही महिलाएं! इस्लाम की धर्मान्धता में उस दरिंदे ने पूरे मेलकोट शहर को ब्राम्हणों के खून से रंग डाला था।
800 यह केवल रिकार्डेड संख्या है। असल संख्या कितनी होगी उसका मात्र अंदाजा ही लगाया जा सकता है!
दीपावली के दिन जब पूरा हिन्दू समाज प्रकाश एवं प्रसन्नता का त्यौहार मनाता है तब 'मांड्यम अय्यंगारों' को यह दिन उनके पूर्वजों की निर्मम हत्याओं की याद दिलाता है। इसलिए वे दीपावली नहीं मनाते हैं।
मैं नहीं कहता कि हमें भी दीपावली मनाना छोड़ देना चाहिए किन्तु इतना तो कर ही सकते हैं कि हम हमारे उन पूर्वजों को याद करें जिन्होंने इस्लाम कबूलने से बेहतर अपने जीवन को त्याग देना उचित समझा!
इसलिए ऐसे हरसंभव प्रयास होने चाहिए कि हम 'मांड्यम अय्यंगारों' की भावनाओं को स्वयं के साथ जोड़ सकें!
यें चित्र बलूचिस्तान के हिंगलाज माता मंदिर की यात्रा कर रहे हिन्दुओं के हैं।
हिंगलाज माता का मंदिर हिंदुओं के 51 शक्तिपीठों में से एक है। और चूँकि यहाँ हिंगलाज माँ को नानी भी कहा जाता है इसलिए यह नानी माँ के मंदिर के रूप में भी विख्यात है।
पाकिस्तानी हिन्दुओं के पास एक बहुत आसान विकल्प है कि मौज-शौक करने के लिए इस्लाम कबूल कर लो लेकिन वे अपना धर्म बचाये रखने के लिए क्या-क्या लूटा दे रहे हैं उसका हमें अंदाजा तक नहीं!
विपरीत परिस्थितियों में भी अपने धर्म, अपनी संस्कृति, अपने स्थलों, अपने चिन्हों को बचाये रखने के लिए जो लड़ाई पाकिस्तानी हिन्दू लड़ रहे हैं, हमें सदैव उनके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए!
जान के अच्छा लगता है कि युवा अब अपना अनकहा इतिहास स्वयं खंगाल रहे हैं।
हमारे स्कूलों एवं कॉलेजो में इतिहास के नाम पर अधिकांशतः मुग़लों का महिमामंडन है। हिन्दू समाज अब यह समझ चूका है कि वह हिंदुओं का इतिहास नही है। इसीलिए युवा अब खुद कमान संभाल रहे हैं।
उनमें एक ललक है ऐसे अनछुए विषयों को गहराई से जानने की। वे स्वार्थी भी नही की खुद जान कर बैठ जाएं, वे चाहते हैं कि समाज का बहुत बड़ा वर्ग जो ऐसे इतिहास से वंचित है, उनतक भी यह जानकारी पहुंचे।
इसलिए प्रतिदिन ऐसी कमैंट्स आती रहती है।
मैं वचन देता हूँ कि हमारा गौरवशाली इतिहास हरसंभव आप तक पहुंचाने का प्रयास करूँगा। आप सब यूँही जुड़े रहें, अपने स्नेह का आशीर्वाद देते रहें।
Abhishek Singh Rao | अभिषेक सिंह राव
संसद में अब #जयचंद शब्द को बैन कर दिया गया है। अभी तक यह नाम किसी को गद्दार बताने के लिए प्रयोग में लिया जाता था। लेकिन इंटरनेट के दौर में सच्चाई सबके सामने आ चुकी है कि जयचंद गद्दार नहीं अपितु एक वीर देशभक्त था और उसकी राष्ट्रनिष्ठा पर प्रश्न उठाना भी मूर्खता है। सरकार का यह निर्णय उन इतिहासकारों के गाल पर जोर का तमाचा है जिन्होंने इतने वर्षों तक जयचंद को बदनाम किया।
हमारे देश के बेईमान इतिहासकारों ने ऐसा झूठ गढ़ा कि मोहम्मद गोरी को भारत आने का और पृथ्वीराज के साथ तराइन का दूसरा युद्ध करने का न्योता जयचंद ने दिया था इसलिए वह देशद्रोही कहा जाएगा। लेकिन सच्चाई तो यह है कि तराइन के दूसरे युद्ध के पहले भी गोरी कईं बार भारत पर आक्रमण कर चूका था और इतिहास में एक भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि तराइन के युद्ध के लिए जयचंद जिम्मेदार था। जबकि इतिहास खंगालें तो उल्टा यह पता चलता है कि पृथ्वीराज के बाद जयचंद ने ही गोरी के लिए सबसे बड़ी चुनौतियाँ खड़ी की। उन्होंने ही गोरी की सेना से एक भीषण युद्ध किया और वीरगति को भी प्राप्त हो गए।
जयचंद की मृत्यु के बाद मुसलमानों ने कन्नौज को हथिया लिया लेकिन आगे जयचंद के वंशजों ने भी मलेच्छों से संघर्ष जारी रखा और अंततः कन्नौज से उन्हें खदेड़ कर दिल्ली के आसपास सिमित कर दिया। जयचंद के वंश के कारण ही कन्नौज के हिन्दू, इस्लामी सत्ता से मुक्त हो सकें। यही कारण था कि मुसलमान जयचंद और उसके पुरे वंश से असीमित घृणा करने लगे। उनके इतिहासकारों ने जयचंद को बदनाम करने की मंशा से यह झूठ गढ़ा कि पृथ्वीराज की मृत्यु का कारण जयचंद था और वह देशद्रोही था।
आगे वामपंथी एवं इस्लामिस्ट इतिहासकारों ने भी इसी बात को दोहराया। उन्होंने जयचंद जैसे देशभक्तों को गद्दार कहा और जो वास्तव में गद्दार थे उन्हें 'महान' बताया।
सरकार ने भले ही औपचारिकता वश यह निर्णय लिया है लेकिन अब गेंद हिन्दू समाज के पाले में हैं। हिन्दू समाज इन मक्कार इतिहासकारों की धूर्तता को समझें और जयचंद को उनका सम्मान प्रदान करें।
2 years ago | [YT] | 109
View 9 replies
Abhishek Singh Rao | अभिषेक सिंह राव
विजयभाई को मोहनजी भागवत के हाथों सम्मान मिलना बहुत ही गर्व का क्षण है। समाज में ऐसे कितने ही व्यक्तित्व हैं जिनकी साधना को अभी तक वह सम्मान नहीं मिला जिसके वें अधिकारी हैं।
आरएसएस द्वारा ऐसे व्यक्तित्वों को खोज-खोज उन्हें सम्मानित करना एक योग्य पहल है। सरसंघचालकजी के पद का एक विशेष महत्त्व है और जब इस पद बैठा व्यक्ति समाज के ऐसे लोगों पर अपना हाथ रखता है तब इसका एक सकारात्मक सन्देश समाज में प्रसारित होता है।
विजयभाई ने अपने जीवन के 25 से अधिक वर्ष वाल्मीकि रामायण के साथ जोड़ दिए। रामायण की समीक्षित आवृत्ति का किसी भी स्वदेशी भाषा में अनुवाद करने वाले वे पहले भारतीय हैं।
मैं यूनिवर्सिटी में था तब पहली बार सर को सुना था। आपके शब्दों, आपके ज्ञान पर रामायण के अनुसंधान का स्पष्ट प्रभाव था। तब मेरे पास कोई विषय, कोई कारण नहीं था कि मैं सर से बात करूँ लेकिन मैंने सर का संपर्क रखा और पिछले वर्ष मैं सर से मिलने भी गया। तबसे लगातार समय-समय पर हमारी बातें होती रहती हैं।
करीब 2-3 घंटा हमने रामायण पर बातें की थी। सर ने बड़े ही आदरभाव से मुझे समय दिया। संवाद के बाद, मैं सोचता ही रहा कि क्यों विजयभाई जैसे व्यक्तित्वों से हमारा समाज परिचित नहीं है!! क्यों ऐसे व्यक्तित्वों को यथार्थ सम्मान नहीं मिलता!!
आज सुबह जब अख़बार में मोहनजी के साथ विजयभाई की फोटो देखी तो बहुत ही संतोष हुआ।
विजयभाई के साथ हमारा रिकार्डेड संवाद यहाँ देख सकते हैं -https://youtu.be/3ywIyyF12Jg
2 years ago | [YT] | 174
View 6 replies
Abhishek Singh Rao | अभिषेक सिंह राव
टीवी वाली महाभारत धारावाहिक में कर्ण को जन्म से ही बेचारा और अभागा बताया गया है जिसके साथ हमेशा ही अन्याय होता है। किन्तु असल महाभारत पढ़ने पर ज्ञात होता है कि यह सत्य नहीं है। कर्ण की वृत्ति बाल्यकाल से ही अधर्मी थी। उसके मन में प्रारंभ से ही अर्जुन के प्रति द्वेष था। उसने द्रौपदी को वैश्या कहा। उसने भीष्म, कृपाचार्य, अश्व्थामा को अपशब्द कहे और हमेशा युद्ध के लिए दुर्योधन को उकसाये रखा। वह महारथी भी नही क्योंकि वह अर्जुन से कभी जीत ही नाहीं पाया। प्रस्तुत वीडियो में इसी विषय पर विस्तार से चर्चा गई है। अवश्य देखें - https://youtu.be/RxgrB28Xhv8
2 years ago (edited) | [YT] | 96
View 5 replies
Abhishek Singh Rao | अभिषेक सिंह राव
अरब आक्रांता जब भारत में पाँव पसारने के लिए लालायित थे, ऐसे समय में #रामानुजाचार्य ने भारत की जनता के भीतर की धार्मिक भावनाओं को प्रबल किया और हर वर्ग के लोगों के बीच ‘मुक्ति और मोक्ष’ के मंत्रों के बारे में सार्वजनिक रूप से बताया।
एक बार जब वे यादवाद्रि यानी आज के #मेलकोट पहुंचे तो लोगों ने उन्हें बताया कि 'इस पर्वत पर कभी यादवाद्रिपति की पूजा होती थी किन्तु विधर्मियों ने यहाँ लगातार आक्रमण किये और यहाँ के मंदिरों एवं विग्रहों को खंडित कर दिया। पूजा बंद करवाने की नीयत से कईं विग्रहों को गुप्त स्थान में रखकर चले गए। साथ ही मूल्यवान विग्रहों को दिल्ली के सुल्तानों के पास भी भेज दिया।'
इस बात को सुनकर रामानुजाचार्य यादवाद्रि से दो माह पदयात्रा कर के दिल्ली पहुंचे और भारतवर्ष के अनेक देवालयों से लुटे हुए विग्रहों में से यादवाद्रिपति के उत्सव-विग्रह को वापस यादवाद्रि ले आये।
भगवान यादवाद्रिपति के उत्सव-विग्रह के लौटने के साथ ही एकबार फिरसे गांव में पूजा आरम्भ हो गई। और गांव के भक्त एवं पतितजन यादवाद्रिपति से पुनः निर्मल एवं आशीर्वादयुक्त हो पाए।
आज रामानुज के धर्मावलम्बी जनसमाज में 'श्री-सम्प्रदाय' के अंतर्गत आते हैं और दक्षिण-भारत में उनका प्रभाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। श्री परम्परा में भगवान श्री विष्णु ही परतत्व हैं और यहाँ श्री शब्द का सम्बन्ध श्रीदेवी अर्थात महालक्ष्मी से है। श्री सम्प्रदाय के अनुयायियों का मानना है कि महालक्ष्मी श्रीदेवी, भगवान् विष्णु और मनुष्य के बीच मध्यस्थ है। वें भक्त, भक्ति, भगवन्त, गुरु इन चारों को जोड़ती है और जीव को शरणागति कराकर तीनों दु:खों से मुक्ति कर देती हैं।
'स्टैच्यू ऑफ इक्वैलिटी' के रूप में रामानुजाचार्य की प्रतिमा का अनावरण प्रत्येक हिन्दू के लिए गर्व का क्षण है।
2 years ago (edited) | [YT] | 243
View 3 replies
Abhishek Singh Rao | अभिषेक सिंह राव
इंडोनेशिया के बालिनेस हिन्दू प्रत्येक ईसाई-वर्ष के बदलने पर रामायण आधारित उत्सव का आयोजन करते हैं।
इस उत्सव का आयोजन केनका पार्क में होता है जहाँ देश-विदेश के लोग अपने वहाँ की आतिशबाजियों-शराबों-पार्टियों को छोड़कर मात्र रामायण देखने पहुँचते हैं। बाली के हिन्दुओं ने 25 वर्ष का समय लगाकर इस पार्क में 393 फुट ऊँची गरुड़-विष्णु की प्रतिमा को स्थापित किया था।
31 दिसम्बर की रात यह पार्क वानरों की ध्वनि, सीताहरण के दृश्यों एवं राम के वचनों से गूंज उठता है। क्या भारतीय हिन्दुओं से ऐसी कोई भी अपेक्षा की जा सकती है?
एक स्वतंत्र सभ्यता के यही लक्षण हैं कि वे दूसरों के कारणों में भी अपनी संस्कृति की छाप छोड़ते हैं। बाली के हिन्दुओं ने इसका एक उत्कृट दृष्टांत दिया है।
2 years ago (edited) | [YT] | 854
View 19 replies
Abhishek Singh Rao | अभिषेक सिंह राव
हिन्दू मंदिरों के सम्बन्ध में स्वामी श्रद्धानन्द ने आज से लगभग 100 वर्षों पहले जो विचार रखे थे 'काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर' उसका जिवंत दृष्टान्त है।
1920 के दशक में भारत की जनसँख्या 25 करोड़ के आसपास थी जिसमें मुसलमानों की संख्या 3-4 करोड़ यानि 15% के आसपास थी। बावजूद उनके पास जामा और फतहपुरी जैसी बहुत सी ऐसी मस्जिदें थी जहाँ एक साथ 25 से 30 हजार मुस्लिम श्रोता एक साथ बैठ सकते थे। किन्तु हिन्दुओं के पास केवल एक मात्र लक्ष्मीनारायण धर्मशाला थी जहाँ पर कठिनाई से 800 व्यक्ति ही बैठकर सभा कर सकते थे।
स्वामीजी ने अपनी पुस्तक 'हिन्दू संगठन क्यों और कैसे?' में लिखा था कि "आज के हिन्दू एक दूसरे मिलने को नितांत उदासीन रहते हैं। उसका प्रमुख कारण है कि उनके पास मिलने के लिए तथा सभा आदि करने के आयोजन के लिए कोई सार्वजनिक स्थान नहीं है। जातिगत मंदिरों में इतना भी स्थान नहीं है कि वहाँ 100 या 200 व्यक्ति इकट्ठे बैठ जायें।"
ऐसे में उन्होंने सुझाव दिया था कि "प्रत्येक नगर और शहर में एक हिन्दू-राष्ट्र मंदिर की स्थापना अवश्य की जानी चाहिए जिसमें एक साथ 25 हजार एक साथ समा सकें।"
आज जब हिन्दुओं की संख्या 100 करोड़ से अधिक है ऐसे में यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि ऐसे मंदिरों में कम से कम 1 से 2 लाख हिन्दुओं के इकट्ठे होने की सुविधा हो। और मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो 'काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर' में इस बात का बहुत सावधानी से ध्यान रखा गया है।
स्वामीजी ने मंदिर परिसर में भारतमाता के एक सजीव नक़्शे की बात कही थी ताकि प्रत्येक भारतीय इसके सामने खड़े होकर यह प्रतिज्ञा दोहराये कि वह अपनी मातृभूमि को उसी प्राचीन गौरव के स्थान पर पहुँचाने के लिए प्राणों तक की बाजी लगा देगा, जिस स्थान से उसका पतन हुआ था।
मैंने कल्पना नहीं की थी कि स्वामीजी के इस विचार को कभी उतनी महत्ता मिलेगी किन्तु काशी कॉरिडोर के चित्रों देखते हुए मेरी दॄष्टि भारतमाता की उस प्रतिमा पर ठहर गई जो स्वामीजी के विचारो के साक्षी होने का प्रमाण देती है। यहाँ आदि शंकराचार्य एवं अहिल्याबाई होल्कर के साथ-साथ भारतमाता की प्रतिमा भी स्थापित की गई है।
इन्ही स्वामीजी ने कांग्रेस एवं गाँधी को दलितोद्धार, अस्पृश्यता, महिला सशक्तिकरण, हिन्दू पुनरुथान, बाल-विवाह, धर्मान्तरण, शिक्षा जैसे विषयों पर एक से बढ़कर एक उपचारात्मक उपाय सुझाये थे किन्तु किसी ने उसपर तनिक भी ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा।
उस समय दिल्ली एवं आगरा के चर्मकार समाज की एक मात्र यह माँग थी कि उन्हें उन कुओं से पानी भरने दिया जाये जहाँ से हिन्दू एवं मुसलमान दोनों भरते हैं। स्वामीजी ने इस सम्बन्ध में कांग्रेस के मुस्लिम नेता से सहायता मांगी तो उसने उत्तर दिया कि "यदि हिन्दुओं ने आज्ञा दे भी दी तो जब चर्मकार समाज के लोग कुंओं तक आएँगे तो मुसलमान उन्हें बल-प्रयोग कर के भगा देंगे।"
स्वामीजी उस कांग्रेसी नेता के इस उत्तर से बहुत आहात हुए और उन्होंने 1921 में एक पत्र के माध्यम से गांधी को इस बात से अवगत करवाया किन्तु गाँधी ने भी इसकी कोई सूद नहीं ली।
आज इतने वर्षों बाद जब हम तुलना करते हैं कि गाँधी और नेहरू के नामों की माला जपते हुए कैसे असंख्य स्वामीजी जैसे महापुरुषों की उपेक्षा की गई वहीं भाजपा सरकार जिस प्रकार से इन महापुरुषों का अनुसरण कर रही है यह वास्तव में हिन्दुओं के लिए हर्ष का विषय होना चाहिए।
2 years ago (edited) | [YT] | 489
View 21 replies
Abhishek Singh Rao | अभिषेक सिंह राव
कल मेरी एक क्लाइंट से बात हो रही थी। वह अमेरिका में रहती है।
उसका नाम पढ़कर मैं सोच रहा था कि वह भारत से ही होगी। कुछ देर तक प्रोजेक्ट पर बातें हुईं। तभी अचानक उसने मुझसे पूछा "क्या आप हिन्दू हैं?"
मैंने कहा "हाँ और आप?" उसने कहा "हाँ मैं भी हिन्दू हूँ और मुझे अन्य हिन्दुओं से मिलकर बहुत प्रसन्नता होती है।"
मैंने पूछा "भारत में आपके रूट्स कहाँ से हैं?" उसने कहा "नहीं, मैं तो भारत से नहीं बल्कि 'गयाना' से हूँ!"
मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ किन्तु अपने भावों को सँभालते हुए मैं कुछ अन्य विषयों पर बातें करने लगा।
आश्चर्य इस बात का था कि अमरीका में रहने वाली एक गयाना की हिन्दू कितने सहज ढंग से स्वयं को हिन्दू बता रही है और उस विषय में सामने वाले व्यक्ति को पूछ भी रही है। उसके लिए यह संकोच का नहीं अपितु पहचान और सम्मान विषय है। किन्तु हम भारतीय हिन्दुओं पर पता नहीं कौनसा मनोवैज्ञानिक दबाव है कि हम कहीं भी स्वयं को हिन्दू नहीं बता पाते हैं!
भारत का हिन्दू स्वयं को गाँधीवादी बता देगा, समाजवादी बता देगा, राष्ट्रवादी, एकात्मवादी, अहिंसावादी, अम्बेडकरवादी और ऐसे तमाम 'वादी' किन्तु जो उसकी मूल पहचान है 'हिन्दू' उसे बताने में कतराता रहेगा। अधिकांशों को तो पता भी नहीं होता है कि उनकी पहचान में 'हिन्दू' भी बताया जा सकता है! जबकि भारत के बहार के इंडोनेशिया, मॉरिशस, फिजी, गयाना, सूरीनाम, जमैका, त्रिनिदाद और टोबैगो के हिन्दु बड़े ही सहज तरीके से स्वयं की पहचान हिन्दू बताते हैं और अपनी परम्पराओं पर गर्व भी करते हैं।
क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं कि कोई भारतीय हिन्दू इस तरह की बिज़नेस टॉक में सामने वाले विदेशी से यह पूछ ले कि "आप हिन्दू हैं या नहीं?"
विदेशी के सामने तो ठीक किन्तु भारत में ही हम अपने विद्यालय या ऑफिस में भी कभी स्वयं की पहचान हिन्दू नहीं बता पाते हैं।
आज भारत के किसी भी मठ में चले जाइये आपको अच्छी-खासी संख्या में विदेशियों का जमावड़ा दिखेगा! क्या वे सड़कें और बिल्डिंगे देखने भारत में आये हैं? नहीं! वे यहाँ केवल इसलिए आये क्योंकि यहाँ की पहचान हिन्दू है और वे इसे समझना और जानना चाहते हैं।
तो यदि हम हमारी इस पहचान को भी भुला देंगे तो हमारे पास और कुछ बचेगा ही क्या? इसलिए आवश्यक है कि सबसे ऊपर हम हमारी हिन्दू पहचान को ही रखें।
नोट: फोटो मात्र अभिव्यक्ति के लिए है। यह महिला गयाना की हिन्दू धार्मिक सभा की अध्यक्ष है।
2 years ago (edited) | [YT] | 551
View 23 replies
Abhishek Singh Rao | अभिषेक सिंह राव
क्या इस दीपावली हम 'मांड्यम अय्यंगारों' की भावनाओं के साथ स्वयं को जोड़ सकते हैं?
"टीपू सुल्तान" ने दीपावली के ही दिन कर्णाटक के 800 से अधिक ब्राम्हणों की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी थी क्योंकि उन्होंने इस्लाम कबूलने से इंकार कर दिया था।
क्या तो बच्चे, क्या तो बूढ़े, क्या तो युवा और क्या ही महिलाएं! इस्लाम की धर्मान्धता में उस दरिंदे ने पूरे मेलकोट शहर को ब्राम्हणों के खून से रंग डाला था।
800 यह केवल रिकार्डेड संख्या है। असल संख्या कितनी होगी उसका मात्र अंदाजा ही लगाया जा सकता है!
दीपावली के दिन जब पूरा हिन्दू समाज प्रकाश एवं प्रसन्नता का त्यौहार मनाता है तब 'मांड्यम अय्यंगारों' को यह दिन उनके पूर्वजों की निर्मम हत्याओं की याद दिलाता है। इसलिए वे दीपावली नहीं मनाते हैं।
मैं नहीं कहता कि हमें भी दीपावली मनाना छोड़ देना चाहिए किन्तु इतना तो कर ही सकते हैं कि हम हमारे उन पूर्वजों को याद करें जिन्होंने इस्लाम कबूलने से बेहतर अपने जीवन को त्याग देना उचित समझा!
इसलिए ऐसे हरसंभव प्रयास होने चाहिए कि हम 'मांड्यम अय्यंगारों' की भावनाओं को स्वयं के साथ जोड़ सकें!
2 years ago (edited) | [YT] | 191
View 8 replies
Abhishek Singh Rao | अभिषेक सिंह राव
यें चित्र बलूचिस्तान के हिंगलाज माता मंदिर की यात्रा कर रहे हिन्दुओं के हैं।
हिंगलाज माता का मंदिर हिंदुओं के 51 शक्तिपीठों में से एक है। और चूँकि यहाँ हिंगलाज माँ को नानी भी कहा जाता है इसलिए यह नानी माँ के मंदिर के रूप में भी विख्यात है।
पाकिस्तानी हिन्दुओं के पास एक बहुत आसान विकल्प है कि मौज-शौक करने के लिए इस्लाम कबूल कर लो लेकिन वे अपना धर्म बचाये रखने के लिए क्या-क्या लूटा दे रहे हैं उसका हमें अंदाजा तक नहीं!
विपरीत परिस्थितियों में भी अपने धर्म, अपनी संस्कृति, अपने स्थलों, अपने चिन्हों को बचाये रखने के लिए जो लड़ाई पाकिस्तानी हिन्दू लड़ रहे हैं, हमें सदैव उनके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए!
2 years ago | [YT] | 446
View 14 replies
Abhishek Singh Rao | अभिषेक सिंह राव
जान के अच्छा लगता है कि युवा अब अपना अनकहा इतिहास स्वयं खंगाल रहे हैं।
हमारे स्कूलों एवं कॉलेजो में इतिहास के नाम पर अधिकांशतः मुग़लों का महिमामंडन है। हिन्दू समाज अब यह समझ चूका है कि वह हिंदुओं का इतिहास नही है। इसीलिए युवा अब खुद कमान संभाल रहे हैं।
उनमें एक ललक है ऐसे अनछुए विषयों को गहराई से जानने की। वे स्वार्थी भी नही की खुद जान कर बैठ जाएं, वे चाहते हैं कि समाज का बहुत बड़ा वर्ग जो ऐसे इतिहास से वंचित है, उनतक भी यह जानकारी पहुंचे।
इसलिए प्रतिदिन ऐसी कमैंट्स आती रहती है।
मैं वचन देता हूँ कि हमारा गौरवशाली इतिहास हरसंभव आप तक पहुंचाने का प्रयास करूँगा। आप सब यूँही जुड़े रहें, अपने स्नेह का आशीर्वाद देते रहें।
3 years ago | [YT] | 338
View 16 replies
Load more